चिन्हारी: द यंग इंडिया (in Hindi)

By ललिता सूर्यवंशी onJul. 15, 2020in Environment and Ecology

विकल्प संगम के लिये लिखा गया विशेष लेख (SPECIALLY WRITTEN FOR VIKALP SANGAM)

यह कहानी है जिला धमतरी, छत्तीसगढ़ में बसी उन युवतियों की जिन्होंने साथ मिलकर अपना एक संगठन बनाया। अपने इस संगठन को इन युवतियों ने नाम दिया – “चिन्हारी: द यंग इंडिया”। “चिन्हारी” एक छत्तीसगढ़ी शब्द है जिसका अर्थ ‘चिन्ह या निशान छोड़ना’ है। चिन्हारी, नव युवतियों के जीवन को नयी दिशा देने की एक छोटी सी कोशिश है। इस संगठन की शुरुआत सन 2016 में मार्दापोटि (नगरी ब्लॉक, धमतरी जिला) नामक गाँव में हुई थी। इस काम की पहल में सबसे पहला योगदान रहा स्वर्णिमाँ कृति का। अम्बेड़कर यूनिवर्सिटी दिल्ली में चल रहे अपने शोधकार्य (एम. फिल. – डेवलपमेंट प्रैक्टिस) के तहत स्वर्णिमाँ, दो साल की अवधि के लिए, मार्दापोटि गाँव पहुंची थी। इसी गाँव से उन्होंने अपने ‘एक्शन रिसर्च’[1] की शुरुआत कि जिसके परिणाम स्वरूप युवतियों का यह संगठन निर्मित हुआ। यूनिवर्सिटी संयोजित इस शोध की समाप्ति पर उन्होंने अपने संगठन की युवतियों के साथ जुड़े रहने का निर्णय लिया और इस तरह संगठन के विस्तार पर काम शुरू हुआ। मई 2018 में डोकाल (नगरी ब्लॉक, धमतरी जिला) नामक गाँव की युवतियों को जब चिन्हारी का बोध हुआ तब उन्होंने भी इस संगठन से जुड़ने का मन बनाया। डोकाल की इन युवतिओं में एक मैं भी थी, मेरा रिश्ता चिन्हारी से उन्ही दिनों बना।

मार्दापोटि में चिन्हारी का काम ‘पानी की समस्या’ के कारण शुरू हुआ पर समय के साथ युवतियों को यह भी अनुमान हुआ कि इस समस्या को सतही स्तर पर नहीं समझा जा सकता। यह सिर्फ ‘पानी की कमी’ की समस्या नहीं है। यह तो ‘पानी लाने की’ समस्या भी है। पानी भरने का काम अमूमन महिलाओं (अधिकतर युवतियों) को ही करना पड़ता है। एक दिन में वे तीन से चार घंटे सिर्फ पानी भरने में बिता देती हैं। इस कार्य में या अन्य किसी घरेलू कार्य में उन्हें पुरुषों से मदद नहीं मिलती। सुबह घर का काम खत्म कर, रोज़ पांच किलोमीटर साइकिल चला कर इन युवतियों का स्कूल पहुँचना होता है। स्कूल से लौटते ही फिर से घरेलू कार्यों में जुट जाने से पढाई या फिर अन्य किसी खेल सम्बंदित क्रिया के लिए समय निकाल पाना अपने आप में एक संघर्ष की कहानी बन जाती है। समय का जैसे अभाव ही लगा रहता है और आराम का तो जैसे कोई मौका ही नहीं। अपनी शारीरिक और मानसिक थकान के चलते युवतियां कई बार कक्षाओं में अपना ध्यान केंद्रित नहीं कर पाती जिससे उनके सीखने की प्रक्रिया को हानि पहुँचती है। साथ ही भारी सामान उठाने की वजह से उनके हाथों और पैरों में दर्द रहता है।

हमारे आस पास के क्षेत्रों की युवतियां स्कूल जाना तो शुरू कर पाती हैं पर उन्हें पढ़ाई खत्म करने का मौका हासिल नहीं हो पाता। घर के काम में लड़कियों को ही हाथ बटाना पड़ता है ताकि घर के बड़े खेत-खार, मनरेगा व् जंगल के कामों के लिए जा सकें। एक तरफ घर पर काम की ज़िम्मेदारियाँ बढ़ती जाती हैं और दूसरी तरफ कक्षा में पढ़ाई भी कठिन होती जाती है। पढ़ाई का रोज़मर्रा के जीवन से रिश्ता बना पाना जैसे असंभव सा प्रतीत होने लगता है। इस वजह से कई लड़कियों को पढ़ाई छोड़ने का विकल्प बेहतर लगने लगता है। जो लड़कियाँ बारवी ख़तम कर लेती हैं उन्हें घर की परिस्थितियों को देखते हुए आगे पढ़ाई करने से मना कर दिया जाता है, ताकि वे घर का काम संभाल सकें। लड़कियों का संसार अपने-अपने घरों में ही सिमट कर रह जाता है। अगर मैं चिन्हारी के साथ नहीं जुड़ती तो शायद मेरा जीवन भी सिर्फ घर-गृहस्ती सुलझाने में ही व्यतीत हो जाता। इन बातों से मैं ये नहीं कहना चाहती कि मैं शादी के विरुद्ध हूँ, मगर ये कहना चाहती हूँ कि अब मुझ में सपने देखने की हिम्मत आ गयी है और मैं शादी के अलावा अपने लिए और भी सपने देख पा रही हूँ। गाँव में लड़कियों को एक दूसरे से मिलने का समय नहीं मिलता, या कह सकते हैं कि ये युवतियां अपने जीवन की स्थिति को अपनी असमर्थता समझ ज़्यादा लोगों से मिलना नहीं चाहती। पढ़ाई छोड़ने पर उनके घर वाले जल्द ही उनकी शादी कर देते हैं। यह व्यवस्था एक ऐसे बवंडर की तरह है जिसमें से युवतियों का एवं महिलाओं का बाहर निकल पाना बहुत मुश्किल लगता है। इस व्यवस्था को बदलने के लिए हमने सबसे पहले लड़कियों को एक दूसरे से मिलने के लिए प्रेरित किया। धीरे-धीरे लड़कियाँ हर सप्ताह मिलने लगीं। हर सप्ताह लड़कियाँ अपने-अपने दिनचर्या पे चर्चा एवं चिंतन करने लगीं। वे कभी-कभी अपनी घर व् ज़िंदगी की कहानी भी एक दूसरे से साथ बांटने लगीं। साथ बैठ कर लोगों को सिर्फ अपना ही नहीं एक दूसरे का दुःख व् कष्ट भी दिखने लगा। यहाँ तक पहुंचने में हमें काफी वक़्त लगा। आज भी ये कहना मुश्किल होगा कि हम संगठित हैं, मगर हम संगठित होने की कोशिश में लगे रहते हैं; हम टूटने से बचने के लिए संघर्ष करते हैं – कुछ अपनो से और कुछ अपने आप से। हम कोशिश करते हैं कि हम सिर्फ संघर्ष में सीमित न रहें, कि हम निर्माण और पुनर्निर्माण के लिए नए रास्ते बना पाएं।

युवतियों ने पानी की समस्या के साथ और भी कई विषयों पर चर्चाओं का सिलसिला शुरू किया। चर्चाओं में हर उस विषय को लाया गया जो रोज़मर्रा के जीवन के लिए महत्व रखता है। इन विषयों में सबसे पहले जंगल के साथ आदिवासी समाज के रिश्तों पर चिंतन हुआ। जब जंगल क्षेत्रों में निवास करने वालों की जीवन-शैलिओं पर बातें हुई तो मैं अपने जीवन के बारे में भी सोच पा रही थी। इन चर्चाओं से मुझे अपने आस पास होने वाली सामाजिक समस्याओं का बेहतर बोध हुआ।

चिन्हारी के सदस्यों द्वारा चिन्हांकित किये गए जंगल में मिलने वाले पेड़ और फल; फोटो क्रेडिट – कविता यादव

मई, 2018 में चिन्हारी के माध्यम से डोकाल में जो युवतियों का जुड़ना हुआ तो संगठन में नए तरह के विषय खुलने लगे। डोकाल की सामाजिक परिस्थितियां अलग होने के कारण डोकाल की युवतियों के चिंतन के विषय कुछ अलग रहे। शुरुआती दौर में हमने गाँव की साफ़ सफाई पर कार्य शुरू किया। संगठन की युवतियों ने अलग-अलग सामाजिक विषयों से संबंधित चित्र बनाये, कविताएं व् कहानियां लिखीं। इन चर्चाओं में माहवारी एक बहुत ज़रूरी हिस्सा था। धीरे-धीरे डोकाल (और मार्दापोटि) के संगठनो ने ‘ओपन लर्निंग सेण्टर’ का रूप ले लिया। हम सब साथ बैठ कर सामाजिक राजनीति को समझने के लिए किताबें भी पढ़ने लगे। इन किताबों की कहानियों के माध्यम से हमने गाँव की महिलाओं तक भी अपना सन्देश पहुंचाने का प्रयत्न किया है। हम चाहते हैं कि हमारी बदलाव की भावना सिर्फ हमारे संगठन तक सीमित ना रहे।

संगठन के माध्यम से हमने गोंड समाज और सभ्यता को समझने की कोशिश भी की है और किताबों के माध्यम से ‘घोटुल’[2] के बारे में भी जाना है, और यह समझा कि विदेशी मानव-वैज्ञानिक (एन्थ्रोपोलॉजिस्ट्) ने घोटुल को सही तरह से नहीं समझा। घोटुल सिर्फ योनायन नहीं बल्कि सामाजीकरण की प्रक्रिया भी है। हमारा यह संगठन हमें अपनों और अपने आप के करीब ला रहा है। हमे यह ज्ञात हो चला है की हम अपनी जड़ों को भूल कर किसी भी तरह के भविष्य का निर्माण नहीं कर सकते। घोटुल की शिक्षा के बिना गोंड युवा की शिक्षा अधूरी है। हम सब लड़कियाँ चिन्हारी को घोटुल के ज़रिये से भी समझने की कोशिश करने लगे हैं। हमारा घोटुल, जो अब विलुप्ति की कगार पर है, चिन्हारी में शायद हम उसका पुनर्निर्माण कर पायें, जहां घोटुल को योनिक संस्थान की जगह नारीवाद[3] समाजीकरण के लिए जाना जा सके।

हमें यह महसूस होने लगा है कि आदिवासी समाज का ‘विकास’किसी ‘स्मार्ट सिटी’ में बस जाना नहीं है। हमारा विकास हमारी गोंड सभ्यता (एबोरीजनलाइज़ेशन), पर्यावरण (इकोलोजाइज़ेशन) व नारीवादी राजनीति (फेमिनाइज़ेशन) को साथ रखते हुए ही समझा जा सकता है। हम किसी और के ‘विकास’ की परिभाषा पे आश्रित नहीं हो सकते। हमे अपनी परिभाषा खुद से बनानी होगी। हमे अपनी मंज़िल और अपना रास्ता खुद से तय करना होगा।

जुलाई, 2018 में, धमतरी में एक कार्यशाला के दौरान, डॉ. अनूप धर (डायरेक्टर, सेंटर फॉर डेवलपमेंट प्रैक्टिस, आंबेडकर यूनिवर्सिटी) ने सभी चिन्हारी के सदस्यों के स्वास्थ की जांच कि। इस जांच में हमने पाया की 95% युवतियों के शरीर में आयरन की कमी थी। हम सभी काफी अचंभित हो गए थे। इसकी वजह से हमने निर्णय लिया कि हम अपने खान पान के बारे में अपने परिजनों में जागरूकता लाएंगे। रायगड़ा, उड़ीसा में एकल नारी संगठन, रायडीह, झारखंड में अयंग राजे और डॉ. देबल देब के द्वारा उड़ीसा में निर्मित ‘बसुधा’ (http://cintdis.org/basudha/) में हो रहे देसी बीज के संरक्षण के कार्य को देख कर हमने समझा है कि देसी बीज ज़्यादा पौष्टिक होते हैं। हमारे अपने बुज़ुर्ग कहते हैं कि देसी बीज का स्वाद और पोषण दोनों ही बेहतर हैं। इस वजह से हमारे संगठन ने देसी बीज के विषय को गंभीरता से लिया है और हमने इस पर 'प्रैक्टिकल' शोध शुरू किया। हमने पढ़ा की 1960 में हरित क्रांति के द्वारा हमारे देश में पहली बार ‘हाइब्रिड’ बीज का उपयोग शुरू हुआ था, और तब से आज तक देसी बीज का उपयोग साल दर साल कम होता गया है। हाइब्रिड बीज के कूपोषित होने के कारण उसमें रासायनिक खाद डालने की ज़रूरत पड़ती है, साथ ही उत्पादन बरक़रार रखने के लिए उसमे रासायनिक खाद, कीटनाशक व् नींदानाशक का छिड़काव करना पड़ता है। ये रासायनिक खाद और कीटनाशक पर्यावरण व मनुष्य के स्वास्थ को अधिक हानि पहुँचाते हैं। खेती कि यह पद्धति किसानों को आर्थिक रूप से भी हानि पंहुचा रही है। ज़मीन की घटती उर्वकता को देख रासायनिक खाद की लागत को बढ़ा दिया जाता है जिससे बीज और ज़मीन दोनों की उपज कम से कम होने लगती है। इस क्षेत्र के युवा ‘हाइब्रिड’ बीज की राजनीति को ना समझ पाने की वजह से आधुनकिता और प्राचीनता के बीच कहीं फस कर रह गए हैं। वे इन दोनों के बीच संतुलन नहीं बना पा रहे हैं और खुद शायद किसी विचित्र ‘हाइब्रिड’ अवस्था में फसते चले जा रहें हैं। चिन्हारी के सदस्य आधुनिकता और प्राचीनता का संतुलन खोजने की कोशिश कर रहे हैं, जिसे हेलेना नॉर्बर्ग-होज़ ने अपनी किताब ‘प्राचीनता का भविष्य’ (2013) में समझने की कोशिश की है। हम अपने शरीर और पर्यावरण का ध्यान रखते हुए देसी बीज को बढ़ावा देना चाहते हैं। ऐसे काम को बढ़ावा देने के लिए व् अपने शरीर में आयरन की मात्रा बढ़ाने के लिए हमने खुद देसी बीज उगाने का निश्चय कर लिया। अपने इस निश्चय के ज़मीनी रूपांतर देने के लिए हमने गाँव की महिलाओं से मदद मांगी। उनकी मदद से हमने वन विभाग से ज़मीन के लिए निवेदन किया। वन विभाग के अधिकारियों ने हमसे कुछ कागज़ात मांगे जो हमारे पास नहीं थे। इस वजह से हमें ज़मीन नहीं मिल पाई। हमारी उम्मीदों को देखते हुए गाँव की महिलाओं ने प्राथमिक शाला के अध्यापक से बात कि। उन्होंने भी हमारी उत्सुकता देख कर हमें सब्ज़ी की खेती के लिए स्कूल के पीछे की ज़मीन दे दी, और सहयोग करने का वादा किया। ज़मीन मिलने के बाद भी गाँव की महिलाओं ने हमारी बहुत मदद कि। चिन्हारी की सभी युवतियों ने महिलाओं की मदद से ज़मीन की साफ़-सफाई कि। सबसे पहले तोह ज़मीन को लकड़ी के खूंटे व बाँस से घेरा दिया गया। इसके साथ ही ज़मीन की जोताई करवाई गयी, क्यारियां (बेड) बनाई गयी, पानी के लिए नालियां बनाई गयी और आखिर में बीज लगाए गए। यह बीज हमें देबदुलाल भट्टाचार्य (जो बसुधा में देबल देब जी के सहायक के रूप में काम करते हैं) के द्वारा मिले थे। कुछ दिनों में बीज पौधों में बदल गए, मगर डोकाल में बहुत बारिश व ओले गिरने के कारण सारी सब्ज़ियाँ ख़राब हो गयी। सब्जियों के साथ हमारे सारे बीज भी नष्ट हो गए। इस सब के बावजूद हमने हार नहीं मानी और फिर से मेहनत करने लगे।

अप्रैल, 2019 में चिन्हारी के कुछ सदस्य और गाँव की कुछ महिलाएं स्वर्णिमाँ दीदी के साथ बसुधा (उड़ीसा) पहुंची। मैं भी उस टोली का हिस्सा थी। बसुधा में हमें देबदुलाल जी ने देसी बीजों से सब्ज़ी की खेती के बारे में सिखाया। वे सिर्फ देसी बीजों का उपयोग करते हैं। बसुधा में हमने एकल खेती और मिश्रित खेती के बीच का फर्क जाना। पौधों के परिवार के बारे में पढ़ा। मिट्टी में मल्चिंग (ज़मीन को पत्तों या पुआल से ढक देना) करने के बारे में सीखा। इस प्रकार से हमने जैविक खेती के बहुत सारे सिद्धांत समझे। गाँव वापस आने के बाद हमने अपने बाकी साथियों के साथ जैविक खेती पर एक कार्यशाला कि, और सभी के साथ अपना अनुभव बाँटा। खरीफ, 2019 में हमने फिर से देसी बीज द्वारा सब्जियों की जैविक खेती की शुरुआत कि।

2019 में ग्राम मार्दापोटिमें चिन्हारी के सदस्यों ने एक छोटी सी बाड़ी में देसी सब्जियों की खेती की शुरुआत कि। (फोटो क्रेडिट – स्वर्णिमा कृति)

अप्रैल-मई के महीने में माने जाने वाले ‘अख्ति बिहाव’ के त्यौहार पे हमारे छेत्र के गाँव में सभी लड़कियाँ मिलकर गुड्डे-गुड़ियों की शादी रचाती हैं। शादी के खाने की दावत पूरे गाँव वालों को भेजी जाती है। गाँव वाले खाने पे आते हैं और गुड्डे-गुड़ियों को आशीर्वाद के रूप में पैसे देते हैं। ये पैसे गाँव की लड़कियों के कमाए हुए पैसे होते हैं। 2019 में गाँव की लड़कियों के अख्ति में कमाए सारे पैसों को बाड़ी के काम में लगा दिया गया। हमारी कोशिश थी की बाड़ी में हल चलाया जाए, लेकिन पुरुषों के अपने-अपने खेतो में व्यस्त होने की वजह से उन्होने हमारे बाड़ी की जोताई से मना कर दिया। वक़्त निकलता जा रहा था, तब हम लड़कियों ने तय किया की बाड़ी की जोताई हम खुद करेंगे। स्कूल के दौरान लड़कियाँ सुबह 7 से 8 बजे तक रोज बाड़ी में काम करती थीं। इस तरह हमने रोज़ सुबह काम कर के बाड़ी में बेड बनाया, बीज लगाया और उनकी देख रेख कि। धीरे-धीरे सब्ज़ियाँ उगने लगी और हम अलग अलग दिन अलग अलग लोगों में उन्हें बांटने लगे। हमने अपनी बाड़ी में कुछ तीस प्रकार के फल, फूल और सब्ज़ियां लगाई थी। इसी दौरान हमने तीन गाँव (मार्दापोटी, डोकाल और बगरूमनाला) के कुछ एक सौ पचास परिवारों में देसी बीज बाँटा ताकि वे देसी बीज बचाएँ, बढ़ाएं, औरों में बांटे और स्वस्थ रहें।

2019 के खरीफ में ग्राम डोकाल में चिन्हारी के सदस्यों द्वारा उगाये गई देसी सब्जियाँ। (फोटो क्रेडिट – स्वर्णिमा कृति)

मुझे चिन्हारी से जुड़ा रहना अच्छा लगता है। मुझे अपने संगठन का काम बाकी ‘विकास’ केंद्रित संस्थाओं से कुछ अलग लगता है। हम यह काम खुद से सोच कर करते है। जो कुछ भी हमारी चर्चा से निकल कर आता है हम उसे ही करते है। हमें किसी और के ऊपर निर्भर रहने की ज़रूरत नहीं पड़ती, हम अपना निर्णय खुद लेने की कोशिश करते हैं। हमारे इस युवा संगठन में कोई भी जुड़ सकता है और हमारे साथ मिल कर काम कर सकता है।

दिसंबर, 2019 में चिन्हारी के सदस्यों ने एक पत्रिका की शुरुआत कि, जिसमें हमने अपने अपने अनुभव लिखे। हम हर तीन महीने में ऐसी एक पत्रिका निकालना चाहते हैं जिसमें हमारी कहानी हमारे अपने शब्दों में लिखी गयी हो। इन कहानियों से, इन शब्दों से हम अपनी सोच दूसरों तक पहुँचाना चाहते हैं, बाहर राज्य व देश के लोगों तक पहुचना चाहते हैं। हम चाहते हैं की दुनिया के अलग अलग कोनों तक हमारी बात पहुंचे। इस पत्रिका के माध्यम से हम विश्व की युवतियों को अपने साथ जोड़ना चाहते हैं।

मैं, धमतरी ज़िले के एक छोटे से गाँव डोकाल से हूँ, और मैं “चिन्हारी: द यंग इंडिया” (https://www.chinhari.co.in/) की सदस्य हूँ। हमारी कोशिश है कि हम अपना आत्म-परिचय खोज सके। आज मैं सेंटर फॉर डेवलपमेंट प्रैक्टिस, जो अम्बेडकर विश्वविद्यालय दिल्ली का हिस्सा है, के लिए काम करती हूँ। मैं उनके साथ मिल कर मध्य भारत के जंगलों में मिलने वाले लाख के कीट व पर्यावरण से उसके रिश्ते को समझने कि कोशिश कर रही हूँ। मेरे लिए यह सोच पाना भी मुश्किल था कि मैं दिल्ली के अम्बेडकर विश्वविद्यालय के साथ मिल कर कोई काम कर पाऊँगी। मैंने जो रास्ता “चिन्हारी: द यंग इंडिया” के माध्यम से चुना है, वह शायद गाँव में दूसरी लड़कियों को प्रेरित करे और आशा है कि वे कई बड़े और सुन्दर सपने देखें, ऐसे सपने जो मैं आज शायद सोच भी नहीं पा रही। मुझे यकीन है अगर हम इसी तरह चिन्हारी में संगठित रहे तोह ये सभी सपने ज़रूर पुरे होंगे।

चिन्हारी के सदस्य; (फोटो क्रेडिट – स्वर्णिमा कृति)

मैं अंबेडकर यूनिवर्सिटी से आये उन छात्रों/शोधकर्ताओं को धन्यवाद करना चाहती हूँ जिन्होंने यहाँ आ कर, हमारे साथ रह कर हमें एक माला में पिरो दिया। हमारी अलग अलग ज़िन्दगियों को एक दूसरे से जोड़ दिया। मेरी कोशिश रहेगी कि चिन्हारी बहुत आगे तक जाए और गाँव की लड़कियाँ आत्मनिर्भर हो जाएं ताकि समाज में लड़कियों के प्रति भेद-भाव में बदलाव आ सके। आखिर में मैं रिम्मी दीदी (अनुभा सिन्हा) जो शुरू से हमारे साथ रहीं हैं, उनका धन्यवाद करती हूँ। विजेता दीदी, जिन्होंने एक लम्बे समय तक हमारा साथ दिया है। दोनो को मैं बहुत याद करती हूँ। साथ ही आशुतोष भैया, अर्पित भैया, प्रतीक भैया और अमित का धन्यवाद करना चाहती हूँ। चारामा में प्रवीणा, सौरभ भैया और स्वर्णिमा दीदी कि मदद मैं पर्यावरण के साथ जुड़े रहने का रास्ता खोज रही हूँ। इस यात्रा में डॉ. इमरान अमीन हमारे शिक्षक के रूप में हमारा मार्गदर्शन बन कर रहे हैं। देबल देब जी कि विचार धरा और दुलाल दा की मेहनत के बिना तोह यह काम संभव ही नहीं था। डॉ. अनूप धर हमारी प्रेरणा का सौत्र हैं। बेदबती दीदी और कलावती दीदी से हमे हौसला और साहस मिलता है। मेरे घर वाले और मेरी गाँव कि महिलायें (ख़ास तौर पे मेरी दादी, सत्तू दीदी, अमेनिका दीदी और लोमिन दीदी) के बिना चिन्हारी अपूर्ण रहता। मैं इन सभी के प्रेम और सहयोग के लिए बहुत धन्यवाद व्यक्त करती हूँ। साथ ही मैं अशीष कोठारी जी व विकल्प संगम का बहुत बहुत धन्यवाद करना चाहती हूँ जिन्होंने हमें आवाज़ देने के बारे में सोचा और हमें इतनी प्रेरणा दी।

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[1]‘एक्शन रिसर्च’ शोध करने के कई तरीकों में से एक है। एक्शन रिसर्च के कई पैमाने हैं, जैसे, जिस जगह शोध हो रहा है उस जगह, जीवन, लोग, उनके इस्तिहस सभी के बारे में शोधकर्ता का जानना, वहां के लोगों के दिनचर्ये, सुख, दुःख, आदि को करीब से समझना व महसूस कर पाना, उस जगह व जीवन से रिश्ता बना पाना, उनके जीवन के कष्ट को समझ पाना और उस कष्ट से जूझ रहे लोगों के साथ मिल कर उस कष्ट को कम करने कि कोशिश करना। इस शोध में समय और जगह बहुत मान्य रखते हैं। एक अलग दृष्टि से देखने पे हम जान सकते हैं एक्शन रिसर्च समाज व जीवन में बदलाव लाने के लिए किया गया शोध है; सामाजिक पुनर्निर्माण का एक विशेष तरीका। अंध-विश्वास और एक्शन रिसर्च के माध्यम से किया गया पुनर्निर्माण दोनों में बहुत फर्क है।

[2]गोंड सभ्यता में नव युवक और युवतियों का एक समुदाय होता है जहाँ सांस्कृतिक, सामाजिक, नैतिक और मुख्य रूप से ‘प्रेम’ के विषय पर शिक्षा दी जाती है।

[3]हमारी समझ में नारीवाद महिलाओं या पुरुषों के बारे में नहीं है। नारीवाद को चिन्हारी में एक व्यवस्था कि तरह समझा जाता है, एक ऐसी व्यवस्था जो प्रेम और अहिंसक धागों से बुना गया हो, जो शिशु, स्त्री, धरती, हवा, पानी, जंगल, जानवर आदि किसी को भी हानि पहुचने की प्रतिक्रिया में भागीदारी न रखें। हम नहीं समझते कि नारीवाद एक तत्त्व है जो शायद सिर्फ महिलाओं में पाया जाता है, हमारी समझ में यह व्यवस्था स्त्री या पुरुष दोनों ही बना सकते हैं व दोनों ही बिगाड़ भी सकते हैं।

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