आदिवासियों की उम्मीद है आधारशिला (in Hindi)

By बाबा मायारामonSep. 23, 2018in Knowledge and Media

विकल्प संगम के लिये लिखा गया विशेष लेख (SPECIALLY WRITTEN FOR VIKALP SANGAM)

पश्चिमी मध्यप्रदेश में सेंधवा से 7 किलोमीटर दूर चाटली के पास साकड़ गांव में एक स्कूल है आधारशिला। यह सिर्फ स्कूल नहीं, बच्चों के स्नेह का केन्द्र भी है, उन्हें जमाने की चुनौतियों से लड़ना सिखाने की जगह भी है। वे सिर्फ यहां पुस्तकीय ज्ञान नहीं, बल्कि नए ज्ञान के सृजनहार भी हैं। आदिवासियों के लिए यह एक उम्मीद है।

मैं हाल ही में इस स्कूल को देखने 8-9 अगस्त (2018) में गया था। यह पहली बार नहीं, दूसरी बार गया था। वर्ष 2000 के आसपास भी मैंने यह स्कूल देखा था। उस समय स्कूल की शुरूआत ही हुई थी। लेकिन अब स्कूल को चलते हुए लम्बा अरसा हो गया है।

आधारशिला स्कूल के बच्चे खेती-किसानी सीखते हुए
आधारशिला स्कूल के बच्चे खेती-किसानी सीखते हुए
खेल प्रांगण में बच्चे
खेल प्रांगण में बच्चे

यह इलाका आदिवासी बहुल है। यहां आदिवासियों का अपना स्कूल है। उन्होंने ही इसे बनाया है और वे ही इसे चलाते हैं। स्कूल के निर्माण के लिए गांव-गांव से चंदा एकत्र किया गया, लोगों ने खुद श्रमदान किया, यहां का अधिकांश काम उनकी गाढ़ी कमाई से हुआ। लकड़ी, सीमेंट, खपरैल जुटाई गई, तब जाकर स्कूल बना था।

इस स्कूल का पूरा नाम आधारशिला लर्निंग सेंटर है। इसकी शुरूआत वर्ष 1998 में हुई। यहां आदिवासियों के बीच कार्यरत आदिवासी मुक्ति संगठन, आदिवासी और सामाजिक कार्यकर्ता दंपति अमित-जयश्री ने मिलकर इसे शुरू किया था। अमित-जयश्री पहले पास के पड़ोसी जिले अलीराजपुर में आदिवासियों के हकों के लिए कार्यरत खेड़ुत मजदूर चेतना संघट से जुड़े थे।

इस दौरान उन्हें लगा कि आदिवासियों के बच्चे सरकारी स्कूल में पढ़ नहीं पाते और वहां के माहौल में हीन भावना से ग्रसित हो जाते हैं।

जयश्री कहती हैं कि मुख्यधारा की शिक्षा स्थानीय भाषा, आदिवासियों की जीवनशैली और संस्कृति को खारिज करती है। इसलिए हमने सोचा ऐसा स्कूल हो जिसमें इन सबका समावेश हो। ऐसी शिक्षा पद्धति हो जिसमें वे सहज महसूस कर सकें और उसमें उनकी संस्कृति व इतिहास की जगह हो। उनकी पहचान हो और उनमें आत्मसम्मान का बोध हो।

स्कूल का संचालन पूरी तरह ग्रामीणों के हाथ में है। संचालन समिति में सभी ग्रामीण हैं। इस समिति का नाम वीर खाज्या नायक मानव विकास प्रतिष्ठान है। वीर खाज्या नायक ने 1857 में अंग्रेज सरकार के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी। इसके माध्यम से बच्चों में इतिहास बोध भी कराया है।

यह स्कूल एक छोटी पहाड़ी पर स्थित है। यह गांव के लोगों का, उन्हीं के द्वारा संचालित स्कूल है। आदिवासी बच्चे यहां पढ़ते हैं और उन्हीं के बीच में निकले शिक्षक उन्हें पढ़ाते हैं। यहां वर्तमान में 6 शिक्षक हैं।

सबसे पहले आदिवासी संगठन की मदद से 5 एकड़ जमीन खरीदी।

हालांकि यह जमीन बंजर, पहाड़ी और कंकड़-पत्थर वाली है लेकिन अब यह पेड़ की पत्तियों व टहनियों की जैव खाद, और गोबर खाद से उर्वर बन गई है। जिसमें देसी बीजों की खेती और कई तरह की सब्जियां उगाई जा रही हैं।

यहां बादाम, बहेड़ा, इमली, सुबबूल, महुआ, इमली, नीम के पेड़ हैं। ज्वार, धान और उड़द की खेती है। बरबटी, भिंडी, सेम, लौकी और गिलकी जैसी सब्जियां हैं। फलदार पेड़ भी हैं। बहुत ही हरा-भरा परिसर है।

वर्तमान में यहां स्कूल भवन, पुस्तकालय, छात्रावास, भोजनालय, कार्यालय और शिक्षक आवास है। इस स्कूल के प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ता दंपति अमित और जयश्री का आवास भी यहीं है। यहां बिजली है, हैंडपम्प है स्कूल है और भोजनालय के बीच बड़ा सा मैदान है, जहां बच्चे खेलते-कूदते, पढ़ते-लिखते और प्रार्थना व शारीरिक व्यायाम करते हैं।

यहां प्रोजेक्ट आधारित पढ़ाई पर जोर दिया जाता है। आसपास की खेती कैसी है, कौन सी फसलें होती हैं, यहां की जमीन कैसी है। परंपरागत आजीविका कैसी है, अगर उसमें कमी आ रही है, तो क्यों आ रही है। देसी बीजों की स्थिति कैसी है, अब कौन से बीज हैं, खेती की क्या स्थिति है, पर्यावरण कैसे बदल रहा है, जंगल क्यों खत्म हो रहे हैं इत्यादि।

इन मुद्दों पर समुदाय के लोगों से बातचीत कर, साक्षात्कार कर जानकारी जुटाई जाती है। और इस आधार पर रिपोर्ट तैयार की जाती है। और इसी पर आधारित बच्चे कहानियां तैयार करते हैं, नाटक तैयार करते हैं। इस स्कूल के बच्चे मुम्बई-दिल्ली जैसे महानगरों में हजारों लोगों के बीच नाटक कर चुके हैं। इनकी नाटक समूह का नाम है- नाटक इंडिया कंपनी।

शिक्षक और बच्चों के बीच दोस्ताना रिश्ता होता है। शासकीय स्कूलों की तरह नहीं, जहां शिक्षक और बच्चों के बीच दूरी होती है। यहां बच्चों को कक्षा में उसके पढ़ाई के स्तर को देखकर कक्षा तय की जाती है और उसके बाद उसकी प्रगति देखकर अगली कक्षा में किया जाता है।

यहां कक्षाओं का नाम पहली, दूसरी, तीसरी नहीं है बल्कि क्रमशः पहली को छोटा बीज, बड़ा बीज, दूसरी को यमुना,तीसरी को कावेरी, चौथी को ब्रम्हपुत्र और पांचवी को कृष्णा कहा जाता है। इसी तरह पांचवीं को अमेजन, छठवीं को नील और आठवीं को आक्टोपस नाम दिया गया है।

कक्षा जहां भी बच्चों का मन हो, वही लगाई जाती है। किसी भी विषय पर घंटों बहस होती है। बच्चे खेतों में हल चलाते हैं। खेतों में सब्जियां उगाते हैं। पेड़-पौधों की परवरिश करते हैं। स्थानीय इतिहास व लोक कथाएं ग्रामीणों से बात कर लिखते हैं।

यह आवासीय स्कूल है। यहां कुल 135 छात्र-छात्राएं हैं। स्कूल भवन के दो हिस्से हैं। इसी में दिन में स्कूल चलता है, रात में बच्चे सोते हैं। यहां बस्ते व बिस्तर रखने के लिए अलग-अलग खाने बने हैं। कुछ बच्चे आसपास के गांव से आना-जाना करते हैं।

मुझे यह परिसर बच्चों ने घुमाया और स्कूल के बारे में बताया। यहां के पेड़ों के नाम भी बताए। खेती में कौन सी फसल लगाई है, यह भी बताया। सुबह मैंने देखा कि वे जयश्री के घर के सामने बरामदे में रखी किताबें लेकर पढ़ रहे हैं। उन्हें पेड़ों के नीचे बैठे पढ़ते देख कर मुझे शांतिनिकेतन ( बोलपुर, पश्चिम बंगाल, शांतिनिकेतन की स्थापना गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने की थी) की याद आई, जहां बच्चे पेड़ों के नीचे आज भी कक्षाएं लगती हैं।

यहां स्कूल की फीस प्रतिवर्ष 4000 रूपये, 2 क्विंटल अनाज ( ज्वार, मक्का गेंहू, जो दे सकते हैं),10 किलोग्राम दाल है। इसके अलावा, मित्रो, शुभचिंतको व गैरसरकारी संस्थाओं से चंदा भी लिया जाता है। इसके अलावा समय-समय पर स्थानीय संस्कृति, इतिहास, परंपरागत खेती के रंगीन चित्रों से बने कैंलेडर भी बनाए बेचे जाते हैं जिससे कुछ राशि एकत्र की जा सके।

कुल मिलाकर, इस स्कूल की तीन खास बातें हैं- उत्पादक काम के साथ शिक्षा, स्थानीय भाषा में शिक्षा और शिक्षकों का प्रशिक्षण।

पहली बात, यहां पुस्तकीय ज्ञान की जगह हाथ से काम करने और आसपास के परिवेश और समाज से सीखने को तरजीह दी जाती है। शासकीय स्कूलों के नीरस और बेगाने पाठ्यक्रम को नहीं पढ़ाया जाता बल्कि आदिवासी बच्चे, उनके अभिभावकों, ग्रामीणों के सहयोग से उनके परिवेश, पारंपरिक ज्ञान के आधार पर नया पाठ्यक्रम बनाया जाता है। खेत-खलिहान, पेड़-पौधे, जंगली जानवर, आदिवासियों का इतिहास पढ़ाया जाता है।

दूसरी बात, पाठ्यक्रम स्थानीय भाषा बारेली में बनाया जाता है। और फिर इसे हिन्दी में रूपांतरित बच्चों को समझाया जाता है। उनकी मातृभाषा बारेली में किताबें होने से वे जल्दी इसे समझते हैं और फिर हिन्दी में पढ़ते-लिखते हैं। हालांकि बारेली में किताबें छोटी कक्षाओं में ही होती हैं। इसके अलावा, चित्रों के माध्यम से भी बच्चों को समझाया जाता है।

तीसरी बात, यहां शिक्षकों को प्रशिक्षण दिया जाता है। शिक्षा के क्षेत्र में कार्यरत एकलव्य जैसी संस्थाओं में शिक्षकों को भेजकर प्रशिक्षण दिया जाता है। जिससे शिक्षकों में विषय की समझ बने और वे पढ़ाने के तौर-तरीके सीख सकें।

कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है, यह स्कूल कई मायनों में सरकारी स्कूलों से भिन्न है। उत्पादक काम के साथ शिक्षा, स्थानीय भाषा में शिक्षा, शिक्षकों का अच्छा प्रशिक्षण और प्राकृतिक परिवेश के साथ सीखना-सिखाना इत्यादि।

अब यह स्कूल जवान हो चुका है, यानी करीब 20 साल का। इसके सामने कुछ चुनौतियां भी हैं। संसाधन सीमित हैं, कम वेतन में और दूरदराज के क्षेत्र में शिक्षक भी नहीं मिलते, उनका अभाव रहता है। आदिवासी संगठनों की गति धीमी हुई है, जो इनकी शक्ति थी।

लेकिन फिर भी यह स्कूल चल रहा है और अच्छे से चल रहा है। इसमें कुछ बच्चे निकलकर बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय जैसी जगह पहुंचे हैं और पीएचडी कर रहे हैं। वंदना किराडे, अभी अभी नायब तहसीलदार बनी है, इंजीनियर, शिक्षक और अन्य शासकीय सेवाओं में पहुंचनेवाले छात्र-छात्राएं तो कई हैं। लेकिन इसकी सबसे बड़ी सफलता तो यही है कि यहां से निकले छात्र गांवों में अच्छी खेती कर रहे हैं। गांवों में ही आजीविका के छोटे-मोटे धंधे कर रहे हैं। छात्र राजनीति में भी दखल दे रहे हैं। एक अच्छे भविष्य के साथ बेहतर दुनिया का सपना देख रहे हैं।

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dr. ratna verma October 25, 2018 at 9:54 am

बहुत ही अच्छी स्टोरी है। आज की पीढ़ी को इसी प्रकार के पाठ्यक्रम की आवश्यकता है। ताकि बच्चे सिर्फ किताबी कीड़ा न बनें। बच्चों के परिवेश, उनकी रूचि, उनकी संस्कृति और उनके वातावरण के अनुसार ही स्कूल का वातावरण होना चाहिए। इस तरह की शिक्षा से कोई भी बेरोजगार नहीं रह सकता। सबसे अधिक जरूरी है किसी को भी आत्मनिर्भर बनने के लिए अपना गाँव, अपना घर छोड़कर जाने की मजबूरी नहीं होना चाहिए। लेखक को इस बेहतरीन रिपोर्टिंग के लिए बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएँ.